वॉशिंगटन/पनामा सिटी। पनामा नहर के जलमार्ग पर नियंत्रण को लेकर एक बार फिर दुनिया के दो महाशक्तियों के बीच गहरी खाई बन गई है। अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो और पनामा के राष्ट्रपति जोस राउल मुलिनो की हालिया मुलाकात ने इस जटिल कहानी को और भी रोमांचक बना दिया है। इस बैठक के कुछ ही घंटे बाद पनामा ने चीन को तगड़ा झटका देते हुए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को रिन्यू न करने का ऐलान कर दिया।
यह फैसला अचानक नहीं आया, बल्कि इसके पीछे महीनों से चल रही एक कूटनीतिक रणनीति और दबाव की कहानी छिपी है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की छाया इस फैसले पर स्पष्ट रूप से दिखाई दी, जिन्होंने पनामा पर लगातार दबाव बनाते हुए कहा था कि नहर क्षेत्र में चीन की उपस्थिति 1999 की ऐतिहासिक संधि का उल्लंघन है, जिसके तहत अमेरिका ने पनामा नहर का नियंत्रण छोड़ा था।
अमेरिका का दबाव: नहर पर चीन का प्रभाव खतरे की घंटी
पनामा के इस ऐतिहासिक कदम के पीछे अमेरिका का छुपा हुआ दबाव स्पष्ट है। अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रुबियो ने मुलिनो के साथ बैठक के दौरान साफ शब्दों में कहा, “अगर पनामा ने चीन के प्रभाव को नियंत्रित करने के लिए तत्काल कदम नहीं उठाए, तो अमेरिका अपने हितों की रक्षा के लिए कठोर कार्रवाई करेगा।”
रुबियो का यह बयान एक चेतावनी से कम नहीं था। उनका कहना था कि पनामा नहर की तटस्थता को सुनिश्चित करना अमेरिका के लिए प्राथमिकता है। ट्रंप की ओर से बोलते हुए रुबियो ने स्पष्ट किया कि चीन की मौजूदगी उस संधि का उल्लंघन करती है, जिसके तहत अमेरिका ने 1999 में पनामा को नहर सौंपा था।

पनामा का साहसिक फैसला: चीन को अलविदा, अमेरिका के करीब
पनामा के राष्ट्रपति जोस राउल मुलिनो ने इस बैठक के बाद ऐलान किया कि उनका देश अब BRI का हिस्सा नहीं रहेगा। मुलिनो ने कहा, “हम अब अपने इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स और निवेश के लिए अमेरिका के साथ मिलकर काम करेंगे। हमारी सरकार पनामा पोर्ट्स कंपनी का ऑडिट भी करेगी, ताकि पारदर्शिता सुनिश्चित की जा सके।”
पनामा का यह फैसला न सिर्फ आर्थिक रूप से बल्कि रणनीतिक रूप से भी चीन के लिए एक बड़ा झटका है। 2017 में जब पनामा BRI में शामिल हुआ था, तब चीन ने इस परियोजना के जरिए अपने प्रभाव को मजबूत करने के लिए बड़े निवेश किए थे।
पनामा नहर: एक जलमार्ग, जहां दांव पर लगी है वैश्विक राजनीति
पनामा नहर केवल 82 किलोमीटर लंबा जलमार्ग ही नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी जीवनरेखा है जो अटलांटिक और प्रशांत महासागरों को जोड़ती है। इस नहर के जरिए हर साल हजारों जहाज गुजरते हैं, जो वैश्विक व्यापार के लिए महत्वपूर्ण हैं।
पनामा नहर का इतिहास भी संघर्षों से भरा है। 1881 में फ्रांस ने नहर के निर्माण की शुरुआत की थी, लेकिन असफल रहा। इसके बाद 1904 में अमेरिका ने इस परियोजना को संभाला और 1914 में नहर को चालू किया। आखिरकार, 1999 में अमेरिका ने इस जलमार्ग का नियंत्रण पनामा को सौंप दिया, लेकिन इसकी तटस्थता सुनिश्चित करने के लिए एक संधि भी की गई थी।

क्या आने वाले समय में और बढ़ेगा तनाव?
पनामा के इस फैसले के बाद सवाल उठ रहे हैं कि क्या यह अमेरिका-चीन के बीच नए प्रकार के शीत युद्ध की शुरुआत है? अमेरिका की आक्रामक कूटनीति और चीन के बढ़ते वैश्विक प्रभाव के बीच पनामा नहर एक नया संघर्ष का मैदान बन चुका है।
अमेरिका ने पनामा को स्पष्ट संकेत दे दिया है कि अगर उसने चीन के प्रभाव को कम करने के लिए कदम नहीं उठाए, तो वह अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कठोर नीतियों को अपनाएगा। वहीं, चीन इस फैसले से असहज जरूर है, लेकिन उसकी प्रतिक्रिया अभी स्पष्ट नहीं है।
पनामा नहर के जल में उठ रही यह कूटनीतिक लहरें आने वाले समय में वैश्विक राजनीति के नक्शे को बदल सकती हैं। सवाल यही है कि इस जलमार्ग पर कौन रखेगा अपना नियंत्रण – अमेरिका, चीन या पनामा खुद?
जवाब शायद पनामा नहर के शांत दिखने वाले पानी के नीचे छुपा है, जहां हर लहर एक नई कहानी कह रही है।