नोखा, बीकानेर: बीकानेर के नोखा स्थित एक प्राइवेट अस्पताल में एक दुर्लभ बीमारी के साथ जुड़वा बच्चों का जन्म हुआ है, जिनमें एक लड़की और एक लड़का शामिल है। इन नवजातों की त्वचा असामान्य रूप से कठोर और नाखून जैसी दिखती है, जिसे “हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस” नाम की बीमारी कहा जाता है। इस दुर्लभ स्थिति के कारण नवजातों की त्वचा प्लास्टिक की तरह कठोर और फटी हुई है, जो सामान्य संक्रमण का जोखिम बढ़ा देती है। गंभीर स्थिति को देखते हुए इन बच्चों को बीकानेर के पीबीएम अस्पताल में रेफर किया गया है।
डॉक्टर का बयान: “हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस दुर्लभ और घातक बीमारी है”
प्राइवेट अस्पताल में बच्चों का इलाज कर रहे डॉक्टर विशेष चौधरी ने जानकारी दी कि दोनों नवजात इस घातक बीमारी से प्रभावित हैं, जिसमें बच्चे बिना पूर्ण विकसित त्वचा और आंखों के साथ जन्म लेते हैं। इस स्थिति में उनकी जीवित रहने की संभावना काफी कम होती है। डॉक्टर के अनुसार, ऐसे बच्चों की मृत्यु दर 50% तक होती है, और कुछ ही एक सप्ताह से अधिक जीवित रह पाते हैं। इसके साथ ही, संक्रमण से बचाव और समय पर जांच उनकी स्थिति के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण होती है।
बच्ची की हालत स्थिर, संक्रमण का उच्च जोखिम
डॉक्टर चौधरी ने बताया कि जुड़वा बच्चों में से लड़की की स्थिति फिलहाल स्थिर है, परन्तु उसकी त्वचा नाखूनों जैसी कठोर है और जगह-जगह फटी हुई है। इस स्थिति में त्वचा में दरारें बढ़ने और इंफेक्शन का खतरा अधिक हो जाता है, जो उसकी जान के लिए खतरा हो सकता है। उन्होंने बताया कि इस बीमारी का कारण माता-पिता के जीन में उत्पन्न दोष होता है, जिसके परिणामस्वरूप नवजात प्लास्टिक जैसी कठोर त्वचा के साथ जन्म लेते हैं।
हार्लेक्विन-टाइप इचिथोसिस: अनुवांशिक विकृति का परिणाम
डॉक्टरों के अनुसार, इस बीमारी में बच्चे की त्वचा में नाखून जैसी कठोरता होती है और शरीर पर प्लास्टिक जैसी परत दिखाई देती है। मनुष्य के 23-23 जोड़ी क्रोमोसोम होते हैं, और यदि महिला एवं पुरुष दोनों के क्रोमोसोम संक्रमित होते हैं, तो उत्पन्न बच्चे में इचिथोसिस जैसी बीमारी होने की संभावना होती है। इस स्थिति में त्वचा समय के साथ फटने लगती है, और इस प्रक्रिया में होने वाला दर्द असहनीय होता है।
जीवन भर की चुनौतीपूर्ण स्थिति
हालांकि, ऐसे मामलों में कुछ बच्चे समय के साथ अपनी बाहरी परत छोड़ देते हैं, जिससे उनमें कुछ सुधार होता है। रिपोर्ट के अनुसार, लगभग 10% बच्चे ऐसे होते हैं जो धीरे-धीरे ठीक हो जाते हैं, लेकिन इस बीमारी के प्रभाव से उनके जीवन में हमेशा त्वचा संबंधी समस्याएं बनी रहती हैं। कठिनाइयों से भरी इस स्थिति में उन्हें हर दिन दर्दनाक अनुभवों से गुजरना पड़ता है।