पाकिस्तान में सिंधुदेश की मांग जोर पकड़ रही है. ये मांग अभी की नहीं है. तब की है जब पाकिस्तान बना था. ये लोग सात दशकों से अपने लिए अलग देश की मांग कर रहे हैं. इनका कहना है कि सिंध प्रांत में लोगों को अवैध तरीके से घुसाया जा रहा है. इस पर रोक लगाने के लिए जे सिंध फ्रीडम मूवमेंट (JSFM) ने 4 दिसंबर को नेशनल सिंधी कल्चरल डे पर प्रदर्शन किया. साथ ही अपने लोगों की रिहाई की मांग की, जिन्हें लेकर उनका कहना है कि पाक सेना ने उनके लोगों को किडनैप किया है. कराची, कोटरी, टांडो जाम, कंडियारो और सहवान शहरों में JSFM ने प्रदर्शन किए. JSFM एक पॉलिटिकल पार्टी है, जो सिंधुदेश की मांग करती है.
इन लोगों का कहना है कि उन्हें सरकारी नौकरियों में उनके कम अवसर मिलते हैं, राष्ट्रीय वित्त आयोग (NFC) में कम हिस्सेदारी और ना के बराबर आर्थिक मदद मिलती है. इन्हीं सब कारणों से यहां समय-समय पर सिंधुदेश की मांग उठती रहती है.पंजाब की सत्ता में शुरुआत में उर्दू-भाषी मुहाजिरों का राज था. बाद में पाकिस्तानी पंजाबियों ने सरकार से लेकर सेना तक अपना कब्जा जमा लिया. इन लोगों का ऐसा कहना है कि पंजाबियों के सत्ता में काबिज होने के बाद उनकी मुसीबतें और बढ़ गईं. इन सब कारणों ने ही सिंधुदेश की मांग को और बढ़ावा दिया. सरकारी की नीतियों ने सिंध, बलूचिस्तान और आदिवासी इलाकों के मूल निवासियों को सामाजिक-आर्थिक विकास पथ के हाशिए पर धकेल दिया.
कैसे उठी सिंधुदेश की मांग
सिंधुदेश आंदोलन की शुरुआत विवादित ‘वन यूनिट प्लान’ से हुई. साल 1950 में जब पाकिस्तान का केंद्रीकरण हो रहा था, तब सिंध, बलूचिस्तान, पाकिस्तान पंजाब और नॉर्थ-वेस्ट प्रोविंस ( NWFP) को एक यूनिट में पुनर्गठित किया गया. 1970 में जनरल यह्या खान के सेना की कमान संभालने तक अत्यधिक केंद्रीकरण का यह निरंकुश कदम जारी रहा. इससे सिंध के लोगों में गुस्सा भर गया और क्षेत्रीय स्वायत्ता एवं फेडरलिज्म की मांग उठने लगी. सिंध के लोग इस दौर को अपने इतिहास का सबसे काला युग मानते हैं क्योंकि उस वक्त यह प्रांत पूरी तरह से पाकिस्तानी पंजाबियों के प्रभुत्व में आ गया था.
सिंधी पाकिस्तानियों को अपनी संस्कृति पर खतरा महसूस होने लगा
वन-यूनिट योजना ने सिर्फ असंतोष को बढ़ावा दिया क्योंकि इसने पाकिस्तानी सिंधियों की स्थानीय पहचान को विनियोजित और नष्ट कर दिया. फिर उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्र भाषा बनाए जाने से स्थिति और खराब हो गई क्योंकि सिंध के लोगों में धारणा बन गई कि उनकी संस्कृति खतरे में है. फरहान हनीफ सिद्दीकी ने 2012 में अपनी किताब ‘द पॉलिटिक्स ऑफ एथनिसिटी इन पाकिस्तान’ में कहा है कि उर्दू को राष्ट्र भाषा बनाए जाने की वजह से सरकारी नौकरियों और पदों पर आवेदन के लिए सिंधी लोगों को एक और भाषा सिखनी पड़ी.
पहले किसने की थी सिंधुदेश की मांग
इन घटनाओं ने सिंधियों में लगातार अलगाव की भावना को जन्म दिया. विभाजन के दौरान सामजिक और आर्थिक रूप से प्रभावशाली हिंदू भागकर भारत चले गए और उनकी संपत्तियों और प्रशासनिक नौकरियों पर मुहाजिरों ने कब्जा कर लिया. पाकिस्तानी सत्ता के हाथों लगातार हाशिए पर रहने के बाद गुलाम मुर्तजा सैयद ने पहली बार सिंध की आजादी का आह्वान किया. उन्होंने 1972 में जातीय सिंधुदेश की स्थापना की भी मांग उठाई. बांग्लादेश के निर्माण ने भी आजादी की मांग को प्रभावित किया.