इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश: एक महत्वपूर्ण फैसले में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा है कि उत्तर प्रदेश में अब वसीयत का पंजीकरण कराना अनिवार्य नहीं है। यह फैसला 23 अगस्त 2004 से लागू उत्तर प्रदेश संशोधन अधिनियम को रद्द करता है, जिसके तहत राज्य में वसीयत को पंजीकृत करना ज़रूरी कर दिया गया था।
नए फैसले का महत्व
यह फैसला उन लोगों के लिए बड़ी राहत है जो अपनी संपत्ति का उत्तराधिकार तय करना चाहते हैं। अब वे बिना किसी कानूनी बाधा के अपनी इच्छानुसार अपनी संपत्ति का वितरण कर सकते हैं, भले ही उन्होंने अपनी वसीयत को पंजीकृत न कराया हो।
क्या हुआ था?
तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार ने 23 अगस्त 2004 को उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 में धारा 169(3) जोड़कर वसीयत के पंजीकरण को अनिवार्य कर दिया था।
इसके बाद, हाई कोर्ट में दो विरोधाभासी फैसले आए। ‘शोभनाथ’ मामले में, हाई कोर्ट ने कहा था कि कानून लागू होने के बाद से बनी वसीयत को पंजीकृत करना आवश्यक है।
लेकिन, ‘जहान सिंह’ मामले में, हाई कोर्ट ने यह फैसला सुनाया कि वसीयत मृत्यु के बाद ही प्रभावी होती है और इसलिए इसे पेश करने के समय पंजीकृत किया जाना चाहिए।
इन विरोधाभासी फैसलों के कारण उत्पन्न भ्रम को दूर करने के लिए, मुख्य न्यायाधीश ने इस मामले को खंडपीठ को भेजा था।
खंडपीठ का निर्णय
न्यायमूर्ति सिद्धार्थ वर्मा और न्यायमूर्ति अजीत कुमार की खंडपीठ ने 12 मई 2024 को अपना फैसला सुनाया।
उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम की धारा 169(3) भारतीय पंजीकरण अधिनियम, 1908 के प्रावधानों का उल्लंघन करती है।
इसके अलावा, उन्होंने 2004 के संशोधन अधिनियम को भी रद्द कर दिया, जिसने वसीयत के पंजीकरण को अनिवार्य बनाया था।
निष्कर्ष
इलाहाबाद हाई कोर्ट का यह फैसला उन लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण जीत है जो अपनी संपत्ति के उत्तराधिकार पर अधिक स्वायत्तता चाहते हैं।
यह निर्णय निश्चित रूप से उत्तराधिकार मामलों से संबंधित कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बनाने में मदद करेगा।