नई दिल्ली: मालेगांव ब्लास्ट केस को लेकर एक बार फिर राजनीतिक और जांच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पर सवाल उठने लगे हैं। इस बार यह सवाल खड़े किए हैं मामले से जुड़े तत्कालीन एटीएस अधिकारी महबूब मुजावर ने, जिन्होंने इस बहुचर्चित केस में कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। मुजावर ने बताया कि इस केस की जांच के दौरान उन पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत को गिरफ्तार करने का दबाव बनाया गया था।
महबूब मुजावर ने दावा किया कि यह आदेश उन्हें मालेगांव विस्फोट की जांच की जिम्मेदारी संभाल रहे परमबीर सिंह ने दिया था। उन्होंने कहा कि भगवा आतंकवाद की थ्योरी पूरी तरह से मनगढ़ंत और झूठी थी। उनके अनुसार, उस समय कुछ उच्च स्तर के अधिकारियों ने उन्हें विशेष सुविधाएं भी प्रदान की थीं ताकि वह किसी खास दिशा में काम करें, लेकिन उन्होंने इससे इनकार किया और केवल अपनी ड्यूटी को प्राथमिकता दी।
मुजावर का यह भी कहना है कि जब उन्होंने इस झूठी थ्योरी का विरोध किया, तो उनके खिलाफ ही झूठे केस दायर कर दिए गए। कोर्ट ने बाद में उन्हें निर्दोष करार दिया। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें पहले से इस गोपनीय साजिश की जानकारी हो चुकी थी, इसलिए वे वर्षों तक चुप रहे। उनका स्पष्ट कहना है कि आतंकवाद किसी भी रंग या धर्म का हो, उससे उनका कोई संबंध नहीं, वे सिर्फ एक पुलिस अधिकारी के रूप में अपना कर्तव्य निभा रहे थे।
इस बीच उन्होंने संदेह जताया कि उस दौर में राज्य सरकार द्वारा उनके वरिष्ठ अधिकारियों पर दबाव डाला जा रहा था, जिससे जांच को एक खास राजनीतिक रंग देने की कोशिश हुई। मोहन भागवत को जानबूझकर फंसाने की योजना बनाई गई थी, जबकि उस समय इस मामले में प्रारंभिक संदेह पाकिस्तान समर्थित संगठनों या सिमी जैसे प्रतिबंधित गुटों पर किया जा रहा था।
उल्लेखनीय है कि यह धमाका 29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव शहर में हुआ था, जिसमें कई लोग हताहत हुए थे। शुरू में जांच की दिशा पाकिस्तान समर्थित मुस्लिम संगठनों की ओर इशारा कर रही थी, लेकिन बाद में एटीएस के प्रमुख रहे हेमंत करकरे की अगुआई में जांच का रुख बदल गया। इसके बाद मामले को तत्कालीन कांग्रेस सरकार द्वारा “भगवा आतंकवाद” के नाम से प्रचारित किया गया और कई हिंदू संगठनों से जुड़े लोगों को आरोपी बनाया गया।
अब महबूब मुजावर के इस बयान के बाद यह मामला फिर से सुर्खियों में आ गया है और तत्कालीन जांच एजेंसियों की निष्पक्षता पर सवाल उठने लगे हैं। साथ ही इस मामले में राजनीतिक हस्तक्षेप और पक्षपातपूर्ण दृष्टिकोण पर नई बहस शुरू हो गई है।