तमिलनाडु: तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों को मंजूरी न देने के मुद्दे पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त टिप्पणी की। अदालत ने साफ कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति किसी भी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते हैं। इस फैसले ने न सिर्फ संवैधानिक विमर्श को नई दिशा दी, बल्कि राजनीतिक हलकों में भी उबाल ला दिया है।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ की तीखी प्रतिक्रिया
राज्यसभा के प्रशिक्षु सदस्यों को संबोधित करते हुए उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले पर गहरी आपत्ति जताई। उन्होंने कहा कि कुछ न्यायाधीश संविधान की व्याख्या करने की सीमाओं से आगे जाकर “कानून बना रहे हैं” और “सुपर संसद” की तरह व्यवहार कर रहे हैं।

“हम कहां जा रहे हैं? देश में क्या हो रहा है? यह लोकतंत्र के लिए एक नाजुक वक्त है।”
— जगदीप धनखड़, उपराष्ट्रपति
धनखड़ ने विशेष रूप से उस निर्णय का उल्लेख किया जिसमें राष्ट्रपति को निर्देश दिए गए हैं। उन्होंने कहा कि संविधान न्यायपालिका को कानून की व्याख्या करने का अधिकार देता है, लेकिन इसके लिए पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ होनी चाहिए।
कपिल सिब्बल का तीखा पलटवार
उपराष्ट्रपति के बयान पर राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने कड़ा जवाब दिया। उन्होंने कहा कि उपराष्ट्रपति को यह समझना चाहिए कि राष्ट्रपति और राज्यपाल, मंत्रिपरिषद की सलाह से ही कार्य करते हैं। उन्होंने इसे विधायिका की सर्वोच्चता में हस्तक्षेप करार दिया।
“अगर संसद कोई विधेयक पारित करती है, तो क्या राष्ट्रपति उसे अनिश्चित काल के लिए रोक सकते हैं? क्या राज्यपाल को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की अनदेखी करने का अधिकार है?”
— कपिल सिब्बल, राज्यसभा सांसद
सिब्बल ने यह भी सुझाव दिया कि यदि कोई मंत्री दो साल तक राज्यपाल के पास बैठ जाए तो क्या राज्यपाल उस पर ध्यान नहीं देंगे? उन्होंने उपराष्ट्रपति के बयान को “संवैधानिक समझ की कमी” से जोड़ा।
तमिलनाडु विवाद की पृष्ठभूमि
इस पूरे विवाद की जड़ में तमिलनाडु के राज्यपाल आर.एन. रवि द्वारा राज्य सरकार द्वारा पारित कई विधेयकों को मंजूरी न देना है। यह मामला तब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा जब राज्य सरकार ने आरोप लगाया कि राज्यपाल जानबूझकर विधेयकों को रोके हुए हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस पर सख्त रुख अपनाते हुए कहा कि:
- राज्यपाल को विधानसभा के निर्णयों को टालने का अधिकार नहीं है।
- राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी नहीं करनी चाहिए।
- लोकतंत्र में कार्यपालिका और विधायिका की भूमिका स्पष्ट और सीमित है, जिससे न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना पड़ा।

संवैधानिक बहस के केंद्र में कौन?
इस पूरे घटनाक्रम में तीन स्तंभ—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—के बीच अधिकारों की सीमाओं को लेकर स्पष्ट खींचतान दिख रही है। जहां न्यायपालिका संवैधानिक मूल्यों की रक्षा का दावा करती है, वहीं कार्यपालिका इसे अपने अधिकार क्षेत्र में हस्तक्षेप मानती है।